पदार्थान्वयभाषाः - हे रात्रि ! (ते) तेरा (सखा) ‘मैं’ यह दिन पति (एतत् सख्यम्) इस गर्भाधानसम्बन्धी मित्रता को (न वष्टि) नहीं चाहता (यत्) क्योंकि गर्भाधान में पत्नी (सलक्ष्मा) समान लक्षणवाली अर्थात समान गुण की और (विषुरूपा) विशेष रूपवती अर्थात् सुन्दरी (भवाति) होनी चाहिये, किन्तु आप सुन्दरी नहीं हैं, बल्कि काले रङ्ग की हैं, तथा न मेरे जैसी समानगुणवाली हैं, क्योंकि मैं प्राणियों को चेतानेवाला हूँ और आप निद्रा में मूढ बनाती हैं। ऐसा होते हुए फिर भी यदि मैं गर्भाधान करके मैत्री का स्थापन करूँ, तो ये (उर्विया) पृथिवी और द्युलोक के मध्य में (दिवः-धर्तारः) जो प्रकाश को धारण कर रहे हैं, तथा (महः-पुत्रासः) महान् प्रजापति के पुत्र और (असुरस्य वीराः) सूर्य के वीर सैनिक, सेना में व्यूहनियम के समान चलनेवाले ये नक्षत्रादि तारागण महानुभाव (परिख्यन्) निन्दा कर डालें, यह एक बड़ी आशङ्का है ॥२॥
भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुष का विवाह समान गुण-कर्म-स्वभाव और रूप के अनुसार होना चाहिये, विपरीत विवाह असंतोषजनक और समाज में अपवाद और अनादर करनेवाला होता है ॥२॥ समीक्षा (सायणभाष्य)−“सखा=गर्भवासलक्षणेन” यहाँ सखिपद मुख्यवृत्ति से भ्राता की ओर न घटते हुए देखकर सायण को खींचातानी करके उक्त विशेषण लगाना पड़ा तथा “सलक्ष्मा= समानयोनित्वलक्षण; विषुरूपा भगिनीत्वात् विषमरूपा” यहाँ से ‘योनित्व’ और ‘भगिनीत्वात्’ ये अध्याहार पद निकाल दें, तो सायण के मत में एक ही वस्तु के लिये ‘समानलक्षण’ और ‘विषमरूपा’ विपरीत अर्थ होंगे। वास्तव में अपने कल्पनाजन्य अर्थ को सिद्ध करने के लिये उन्होंने यह अनावश्यक अध्याहार किया ॥२॥